लेखक का नाम – विजेंद्र सिंह चौहान, एसोसिएट प्रोफेसर.
संस्थान का नाम – ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज. दिल्ली विश्वविद्यालय.
भारत में न्यायिक प्रक्रियाओं में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश[i] जैसे बड़े हिंदी-भाषी राज्य में भाषा-अवरोध अब भी बड़ी चुनौती है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह शोध पत्र हिंदी लोकलाइज़ेशन के माध्यम से न्यायिक प्रणाली को समावेशी, पारदर्शी और प्रभावी बनाने की संभावनाओं का अध्ययन करता है। साथ ही, हम देखते हैं कि न्यायिक प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण और AI आधारित टूल्स के उपयोग से, विशेष रूप से हिंदी-समर्थित तकनीकों के ज़रिए, प्रदेश की विशाल आबादी को किस तरह जल्दी व समझ में आने वाला न्याय उपलब्ध कराया जा सकता है। इस शोध का मूल उद्देश्य हिंदी लोकलाइज़ेशन से जुड़े एआई अनुप्रयोगों की प्रभावशीलता का विश्लेषण करना है। पेपर सरकारी प्रोजेक्ट्स (जैसे e-Courts Phase III, SUVAS, Bhashini) तथा अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों के प्रकाश में, न्यायिक पारदर्शिता व दक्षता बढ़ाने की संभावनाओं का आकलन करता है। द्वितीयक स्रोतों व नीति-पत्रों पर आधारित विश्लेषण से पता चलता है कि अनुवाद, मशीन लर्निंग और नैतिक-अनुभवजन्य मुद्दों के बीच संतुलन साधना एक बड़ी चुनौती है। अन्ततः यह निष्कर्ष उभरता है कि इन टूल्स के ज़रिए मुकदमों के निपटान में तेजी और हाशिये पर खड़े समुदायों को मुख्यधारा न्याय से जोड़ना संभव हो सकता है, बशर्ते मानव-निगरानी एवं नैतिक ढाँचा सुनिश्चित किया जाए।
शोध में मुख्यतः चार प्रश्नों पर फ़ोकस किया गया है: (1) हिंदी लोकलाइज़ेशन पर आधारित एआई टूल्स भाषा बाधाओं को कैसे कम कर सकते हैं? (2) इन तकनीकों का हाशिये पर खड़े समुदायों, विशेषकर महिलाओं और दलित वर्ग के लिए क्या महत्त्व है? (3) न्यायिक दक्षता व पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए एआई कितनी संभावनाएँ खोलता है? और (4) नैतिकता व पूर्वाग्रह-मुक्त प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए क्या मानक अपनाए जाएँ? इन प्रश्नों की कसौटी पर शोध की समूची दिशा निर्धारित की गई है, जिससे हिंदी भाषा में न्यायिक प्रक्रियाओं को और सुगम, न्यायसंगत व उत्तरदायी बनाया जा सके।
पूर्ववर्ती शोध साहित्य समीक्षा (Review of Literature):
हिंदी स्थानीयकरण[ii] के साथ न्यायिक प्रक्रियाओं में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के समावेश पर केंद्रित यह अध्ययन कई महत्त्वपूर्ण साहित्यिक और नीतिगत दस्तावेज़ों को आधार बनाता है। इन स्रोतों से पता चलता है कि भारत में न्यायिक आधुनिकीकरण की अवधारणा एआई-सक्षम ई-कोर्ट्स, भाषा अनुवाद मिशन और सुव्यवस्थित न्याय-प्रणाली के विविध आयामों से जुड़ी हुई है। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य (यूरोप और चीन) में भी एआई-आधारित “स्मार्ट कोर्ट” मॉडल से शिक्षा लेने की ज़रूरत है। प्रस्तुत खंड में हम दस मुख्य स्रोतों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे और इस शोध[iii] में उनकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालेंगे। सबसे पहले, NITI Aayog (2018) की “National Strategy for Artificial Intelligence” रिपोर्ट भारत में एआई के विभिन्न क्षेत्रों (शिक्षा, स्वास्थ्य, स्मार्ट सिटीज़ आदि) में संभावित प्रयोगों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। हालाँकि न्यायिक सुधार पर इसका प्रत्यक्ष फोकस सीमित है, फिर भी यह रिपोर्ट बताती है कि भारत[iv] में एआई को अपनाने के लिए नीति-स्तर पर कौन से ढाँचे और मानक विकसित किए जाने चाहिए। न्याय व्यवस्था में AI के व्यावहारिक अनुप्रयोग हेतु डेटा-सुरक्षा, पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़े सिद्धांत इसी दस्तावेज़ से प्रेरणा ले सकते हैं (NITI Aayog, 2018)। यह वर्तमान शोध में इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि हिंदी लोकलाइज़ेशन के साथ न्यायालयों को डिजिटली सक्षम बनाने के लिए नीति-निर्माताओं को एक विस्तृत एआई रणनीति की आवश्यकता होगी। eCommittee Supreme Court of India (2023)[v] का “Draft Vision Document for eCourts Phase III” न्यायिक डिजिटलीकरण का नवीनतम खाका है। यह दस्तावेज़ स्पष्ट करता है कि देश की तमाम अदालतों में डिजिटल बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के अतिरिक्त, एआई, मशीन लर्निंग और ओसीआर (OCR) जैसी तकनीकों का प्रयोग कैसे किया जाएगा। डॉक्यूमेंट में “भाषा अनुवाद” को प्राथमिकता दी गई है ताकि गैर-अंग्रेज़ी भाषी वादकारियों और वकीलों को भी अपने मामलों की जानकारी सुगमता से मिल सके (eCommittee Supreme Court of India, 2023)। उत्तर प्रदेश जैसा हिंदी-बहुल राज्य इन प्रावधानों से विशेष रूप से लाभान्वित हो सकता है, जो इस शोध की मुख्य चिंता भी है। Press Information Bureau (2023, August 15) की वह आधिकारिक विज्ञप्ति है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा ई-कोर्ट्स परियोजना (चरण III) की वित्तीय एवं नीतिगत मंज़ूरी की घोषणा की गई। यह घोषणा बताती है कि किस तरह सरकार ने “स्मार्ट कोर्ट्स” की संकल्पना को साकार करने हेतु बजट आवंटित किया और एआई-समर्थित प्रक्रियाओं को अपनाने पर ज़ोर दिया (Press Information Bureau, 2023, August 15)। इससे पता चलता है कि नीति-स्तर पर समर्थन मिलने से न्यायालयों के पास नए तकनीकी प्रयोगों (जैसे हिंदी भाषा अनुवाद) में निवेश करने का अवसर बढ़ेगा।
Ministry of Electronics & IT (2022) की “BHASHINI: National Language Translation Mission” रिपोर्ट भारत सरकार के उस प्रयास को रेखांकित करती है, जो विभिन्न भारतीय भाषाओं में डिजिटल सामग्री की उपलब्धता बढ़ाने के लिए समर्पित है। यह पहल सरकारी व निजी संस्थाओं को ओपन-सोर्स एआई मॉडल व डेटासेट उपलब्ध कराने पर केंद्रित है (Ministry of Electronics & IT, 2022)। न्यायिक क्षेत्र में हिंदी लोकलाइज़ेशन हेतु यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि अदालतों की दस्तावेज़ी भाषा को तकनीकी उपकरणों से जोड़ने के लिए मजबूत अनुवाद और एनएलपी (NLP) इंजन की आवश्यकता होती है। Vidhi Centre for Legal Policy (2021) की रिपोर्ट “Implementing AI in Indian Courts: Balancing Efficiency and Fairness” न्यायिक प्रक्रियाओं में एआई के उपयोग से जुड़ी नैतिक[vi] और विधिक चिंताओं को रेखांकित करती है। यह दर्शाती है कि यदि एआई को न्यायिक निर्णय-प्रक्रिया या प्रशासनिक कामकाज के लिए अपनाया जा रहा है, तो अनुचित पूर्वाग्रह (algorithmic bias) रोकने, पारदर्शिता बढ़ाने और गोपनीयता बनाए रखने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)। हिंदी में स्वचालित अनुवादित निर्णयों के संदर्भ में यह शोध अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि अनुचित अनुवाद या सांस्कृतिक संदर्भ की कमी से गलत न्यायिक अर्थ लगाए जाने की आशंका रहती है। Department of Justice (2022) की “eCourts Project Phase II: Official Report” से पता चलता है कि पिछले चरणों में जिला एवं सत्र न्यायालयों में कैसी प्रगति हुई और आगे AI को शामिल करने के लिए क्या कमियाँ अभी भी बाकी हैं। रिपोर्ट में उल्लेख है कि देश के लगभग सभी ज़िला अदालतों को डिजिटलीकृत किया जा चुका है, परंतु भाषाई बाधाएँ अब भी बनी हुई हैं (Department of Justice, 2022)। यह बाधाएँ विशेषतः उत्तर प्रदेश जैसे बड़े हिंदी-बहुल राज्यों में स्पष्ट होती हैं, जहाँ वादकारी एवं वकील स्थानीय भाषा का अधिक प्रयोग करते हैं। इसीलिए AI-आधारित हिंदी लोकलाइज़ेशन की दरकार है। अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में, सातवाँ स्रोत European Commission (2020) का “White Paper on Artificial Intelligence: A European approach to excellence and trust” है। यह यूरोपीय संघ के भीतर एआई विनियमन के सिद्धांतों, चुनौतियों और अवसरों को रेखांकित करता है (European Commission, 2020)। भारत में न्यायिक AI तैनात करते हुए ऐसी पारदर्शी एवं जवाबदेह रूपरेखा उपयोगी होगी, ताकि नागरिकों का न्यायिक AI पर भरोसा कायम रहे।
CEPEJ (2018) यानी “European Ethical Charter on the Use of AI in Judicial Systems” न्यायपालिका में एआई के नैतिक उपयोग के लिए दिशानिर्देश देता है। यह चार्टर निष्पक्षता, पारदर्शिता, डेटा संरक्षण और मानव नियंत्रण (human oversight) के सिद्धांतों पर बल देता है (CEPEJ, 2018)। उत्तर प्रदेश जैसी न्यायिक प्रणालियों में हिंदी लोकलाइज़ेशन के साथ AI अपनाने के दौरान यह दस्तावेज़ मार्गदर्शी साबित हो सकता है, ताकि भाषा अनुवाद या केस मैनेजमेंट टूल्स में वैचारिक या सांस्कृतिक पूर्वाग्रह न आए। अंतरराष्ट्रीय संदर्भ Zhang (2020) का “Challenges and Opportunities for AI in China’s Judiciary: A Case Study of Smart Courts” नामक शोधपत्र है, जो चीन के “स्मार्ट कोर्ट” मॉडल का विश्लेषण करता है। लेखक बताता है कि किस तरह चीन की अदालतें AI का उपयोग कर रही हैं—मसलन स्वचालित केस-फ़ाइल प्रबंधन, इलेक्ट्रॉनिक सुबूतों का विश्लेषण, और फ़ैसलों की प्रारंभिक मसौदा-तैयारी (Zhang, 2020)। यह मॉडल दक्षता बढ़ाने के साथ-साथ न्यायिक विवेक को सुरक्षित रखने की चुनौती का उदाहरण है। भारत में, ख़ास तौर से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, यह सबक लिया जा सकता है कि तकनीकी नवाचारों के साथ न्यायिक अधिकारियों को AI पर अत्यधिक निर्भर न होने की सावधानी भी रखनी होगी। अंत में, Daksh Society (2020) की “Justice Frustrated? The Systemic Impact of Delays in Indian Courts”[vii] रिपोर्ट इस ओर संकेत करती है कि कैसे विलंबित न्यायिक प्रक्रियाएँ जनता के भरोसे को कम करती हैं और सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से हानि पहुंचाती हैं (Daksh Society, 2020)। एआई-समर्थित हिंदी लोकलाइज़ेशन यदि ठीक से लागू हो, तो मामलों को शीघ्र निपटाने में सहायक हो सकता है, जिससे न्यायिक विलंब का बोझ घटेगा। उत्तर प्रदेश में लंबित मामलों की भारी संख्या इस पहलू से सीधे प्रभावित होगी, इसलिए यह शोधपत्र वर्तमान अध्ययन को एक ठोस आधार प्रदान करता है।
सारतः, उपरोक्त सभी स्रोत दर्शाते हैं कि न्यायिक पारदर्शिता, दक्षता और समावेशिता को उन्नत करने में AI-आधारित सिस्टम, विशेषकर हिंदी जैसे बड़े भाषाई वर्ग के लोकलाइज़ेशन के माध्यम से, एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। हालाँकि, इसके साथ-साथ नैतिकता, डेटा-सुरक्षा और न्यायिक विवेक बनाए रखने की चुनौती भी बनी रहती है। यही द्वंद्व इस शोध के मुख्य उद्देश्यों को परिभाषित करता है—यानि कैसे उत्तर प्रदेश में AI को हिंदी में स्थापित करते हुए न्याय के संवैधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्ति की जाए।
शोध–विधि (Methodology):
प्रस्तुत शोध मुख्यतः द्वितीयक स्रोतों पर आधारित एक सैद्धांतिक व विश्लेषणात्मक अध्ययन है, जिसमें प्रश्नावली या सर्वेक्षण विधि का प्रयोग नहीं किया गया है।[viii] शोध का केन्द्रीय उद्देश्य उत्तर प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था में हिंदी स्थानीयकरण हेतु अपनाई जा रही एआई प्रौद्योगिकी को गहराई से समझना एवं इसकी प्रभावशीलता व संभावित चुनौतियों का आकलन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, हमने प्रमुख रूप से भारत सरकार व न्यायपालिका की आधिकारिक रिपोर्टों, नीति-पत्रों एवं वैधतापूर्ण प्रकाशनों को आधार बनाया है। सर्वप्रथम, e-Courts प्रकल्प (चरण III) से संबंधित शासकीय दस्तावेज़ और सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न रिपोर्टों का गहन अध्ययन किया गया, ताकि स्पष्ट हो सके कि हिंदी लोकलाइज़ेशन के लिए किस प्रकार की तकनीक व रणनीतियाँ अपनाई जा रही हैं। इसके अतिरिक्त, Ministry of Electronics & IT तथा Department of Justice की प्रकाशित सामग्री की मदद से हमने भाषा तकनीक (NLP, OCR इत्यादि) व डिजिटल न्यायिक ढाँचे की मौजूदा स्थिति का विश्लेषण किया। इसी क्रम में, बहुभाषीय AI टूल्स (जैसे SUVAS, Bhashini) से जुड़ी तकनीकी-प्रक्रियाओं के विवरण और निष्कर्षों को संकलित कर उनकी तुलनात्मक व्याख्या की गई। शोध में प्रयुक्त सभी दस्तावेज़ों को पाठ-विश्लेषण (content analysis) के अंतर्गत थीमैटिक कैटेगराइज़ेशन द्वारा व्यवस्थित किया गया, ताकि उनकी प्रासंगिकता को स्पष्ट करते हुए निष्कर्ष निकाले जा सकें। विश्वसनीयता (credibility) सुनिश्चित करने हेतु आधिकारिक स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों व विधिक-नीतिगत उद्धरणों को प्राथमिक महत्व दिया गया है। इसी क्रम में, अंतरराष्ट्रीय अनुभवों (यूरोपीय आयोग की रिपोर्ट, चीन का ‘स्मार्ट कोर्ट’ मॉडल) की पुनरावलोकनात्मक समीक्षा भी शामिल की गई, जिससे तुलनात्मक दृष्टि मिल सके। इस विश्लेषणात्मक एवं द्वितीयक स्रोत-आधारित कार्यप्रणाली से, हमारा प्रयास एक ऐसा ठोस प्रारूप तैयार करना है जो हिंदी-भाषी राज्यों में एआई के न्यायिक उपयोग को समझने में सहायक सिद्ध हो और भावी शोध व नीतिगत हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करे।
नीति व विधिक परिवेश (Policy and Legal Context)
भारत में e-Courts Phase III (eCommittee Supreme Court of India, 2023)[ix] एक महत्वाकांक्षी पहल है जिसके अंतर्गत न्यायिक प्रशासन में डिजिटलीकरण और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के व्यापक उपयोग पर ज़ोर दिया गया है। इसके तहत न्यायालयों में “स्मार्ट” फीचर्स—ऑटोमेटिक केस एलोकेशन, इंटेलिजेंट शेड्यूलिंग, ई-फाइलिंग—के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में न्यायिक दस्तावेज़ उपलब्ध कराने के लिए अनुवाद टूल्स को संस्थागत रूप से अपनाया जा रहा है (Press Information Bureau, 2023, August 15)। सरकारी घोषणाओं में बार-बार यह रेखांकित किया गया है कि हिंदी-भाषी प्रदेशों, विशेषतः उत्तर प्रदेश, में लोकल भाषा में न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करना न्यायिक सुधारों का एक प्रमुख आयाम होगा (Ministry of Electronics & IT, 2022)। इस संदर्भ में, SUVAS (Supreme Court Vidhik Anuvaad Software)[x] ने न्यायिक आदेशों और फैसलों को अंग्रेज़ी से हिंदी समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवादित करने में सहायक भूमिका निभाई है (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)। हालाँकि, मौजूदा सीमा यह है कि SUVAS द्वारा किए गए अनुवाद पूरी तरह निर्दोष नहीं हैं, इसलिए उच्च-स्तरीय मामलों में विशेषज्ञ अनुवादकों का मानव-समर्थन अभी भी आवश्यक रहता है (NITI Aayog, 2018)। फिर भी, यह टूल हिंदी स्थानीयकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है इसी प्रकार Bhashini (National Language Translation Mission) का लक्ष्य विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद को सुगम बनाने के लिए ओपन-एपीआई मॉडल्स और क्लाउड-आधारित सेवाएँ उपलब्ध कराना है (Ministry of Electronics & IT, 2022)। यह पहल सरकारी व निजी क्षेत्र को भाषा-आधारित AI टूल्स विकसित करने की आज़ादी देती है, जिससे हिंदी जैसे बड़े भाषाई समुदाय को ‘Ease of Access’ मिलने की उम्मीद है (eCommittee Supreme Court of India, 2023)।[xi]
नीति और विधिक ढाँचे के स्तर पर, इन पहलों की ज़रूरत को इस बात से भी बल मिलता है कि संविधान के अनुच्छेद 348(2) और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के चलते राज्य सरकारें अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषा को न्यायालयों में अपनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं (Department of Justice, 2022)। उदहारण के तौर पर, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग लगभग पाँच दशकों से अनुमन्य है, लेकिन अब यह AI-सक्षम डिजिटल अवसंरचना के सहारे और भी प्रभावशाली बन सकता है (Daksh Society, 2020)। सारतः, नीतिगत स्तर पर AI को न्यायिक प्रशासन में संस्थागत रूप देने पर जोर है, ताकि हिंदी-भाषी जनता के लिए न्याय व्यवस्था और अधिक सुलभ, पारदर्शी, एवं सहभागी बने।
तकनीकी कार्यान्वयन (Technical Implementation):
AI को हिंदी में लागू करने के लिए सर्वप्रथम प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण (NLP) और मशीन लर्निंग की तकनीकों का उपयोग अनिवार्य है। हिंदी कानूनी दस्तावेज़ों में Optical Character Recognition (OCR), टोकनाइज़ेशन, तथा वर्तनी-भेद (spelling variations) प्रमुख चुनौतियाँ हैं (NITI Aayog, 2018)। चूँकि कई अदालती फ़ैसले हस्तलिखित या स्कैन किए हुए प्रारूप में उपलब्ध हैं, इन दस्तावेज़ों की सटीक OCR प्रोसेसिंग हेतु उच्च-स्तरीय लैंग्वेज मॉडल आवश्यक है। इसके बाद, सही टोकनाइज़ेशन (शब्दों और वाक्यों की पहचान) करना विशेष रूप से मुश्किल होता है, क्योंकि हिंदी में संयोजन और मिज़ाज के अनुरूप शब्दों के स्वरूप बदल जाते हैं (Ministry of Electronics & IT, 2022)।[xii]
मॉडल प्रशिक्षण (Training) के लिए पर्याप्त, स्वच्छ, और एनोटेट डेटा सेट की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य हिंदी-भाषी राज्यों में उपलब्ध अदालती रिकॉर्ड का एक विशाल ‘Hindi Legal Documents Corpus’ तैयार किया जा रहा है (Department of Justice, 2022)। इसमें डोमेन-विशिष्ट शब्दावली (legal terms, धारा संबंधी विवरण इत्यादि) को स्पष्ट एनोटेशन के साथ शामिल किया जाता है, ताकि अनुवाद और पाठ-विश्लेषण अधिक सटीक हो। साथ ही, यदि न्यायिक अधिकारियों को ही डेटा-संग्रह एवं वैधता जाँच (validation) के काम में शामिल किया जाए, तो टेक्नोलॉजी और कानूनी विशेषज्ञता के बीच तालमेल बेहतर बनता है (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)।
पायलट प्रोजेक्ट्स के स्तर पर UP RERA का “AI Smart Court” मॉडल उल्लेखनीय है (Daksh Society, 2020)। यद्यपि यह मुख्य न्यायिक कोर्ट नहीं, बल्कि रेरा-अनुरूप ट्रिब्यूनल है, लेकिन इसकी कार्यवाही काफी हद तक अदालती पद्धति का अनुसरण करती है। वहाँ AI आधारित शिकायत निपटान प्रणाली, शेड्यूलिंग, एवं प्राथमिकता निर्धारण (case prioritization) की कोशिश की गई है, जो भविष्य में ज़िला अदालतों तक लागू की जा सकती है (eCommittee Supreme Court of India, 2023)। प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, AI उपयोग से दायर मामलों की संख्या और निस्तारण के बीच समन्वय बेहतर हुआ है, हालांकि बड़े पैमाने पर लागू करने से पहले कई तकनीकी और प्रशासनिक बाधाओं को समझना बाकी है (Press Information Bureau, 2023, August 15)।[xiii]
कुल मिलाकर, तकनीकी स्तर पर हिंदी डॉक्यूमेंट प्रोसेसिंग में भाषा-विशेष के अनुरूप सुधार व अधिक समृद्ध शब्दभंडार (lexicon) की ज़रूरत है, ताकि AI आधारित टूल्स न सिर्फ़ उच्च न्यायालयों में, बल्कि जड़-स्तर की न्यायपालिका में भी दक्षतापूर्वक कार्य कर सकें।
समावेशिता और सामाजिक प्रभाव (Inclusion and Social Impact)
AI को अक्सर तटस्थ, तार्किक और निष्पक्ष तकनीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन अध्ययन इंगित करते हैं कि AI पूर्णतः मूल्य-निरपेक्ष (value-neutral)[xiv] नहीं होता (European Commission, 2020; CEPEJ, 2018)। ऐतिहासिक रूप से पक्षपाती या अपूर्ण डेटा-सेट के आधार पर प्रशिक्षित एल्गोरिथ्म भी अंतर्निहित पूर्वाग्रहों को दोहरा सकते हैं (Zhang, 2020)। इस परिप्रेक्ष्य में, उत्तर प्रदेश जैसे विशाल हिंदी-बहुल राज्य में, जहाँ ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच गहरा डिजिटल व सामाजिक विभाजन है, समावेशिता पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है (Daksh Society, 2020)। सबसे पहले, हाशिये पर खड़े समुदायों तक डिजिटल पहुँच की बात करें तो इंटरनेट अवसंरचना और साक्षरता की कमी अनेक व्यक्तियों को ई-कोर्ट या AI-आधारित एप्लिकेशन का लाभ उठाने से रोक सकती है (NITI Aayog, 2018)। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अल्पसंख्यक वर्गों में डिजिटल जागरूकता अपेक्षाकृत कम होने से AI की उपलब्धता उन्हें सीधे मदद नहीं पहुँचा पाती (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)। यदि स्थानीय संस्थाओं या गैर-सरकारी संगठनों की मदद से विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए जाएँ, तो इन समुदायों का सहभाग बढ़ सकता है। दूसरा पहलू महिलाओं व अन्य वंचित समूहों से जुड़ा है। अक्सर महिलाएँ न्याय तक पहुँच में दोहरे अवरोधों का सामना करती हैं—एक ओर सामाजिक पूर्वाग्रह और दूसरी ओर भाषा-सम्बंधी व तकनीकी अवरोध (Department of Justice, 2022)। AI-आधारित हिंदी लोकलाइज़ेशन टूल्स, यदि सहज उपयोगी हों, तो शिकायत दर्ज कराने और न्यायालयी प्रक्रियाओं की जानकारी प्राप्त करने में महिलाओं की सहभागिता बढ़ा सकते हैं (Ministry of Electronics & IT, 2022)। मगर, यदि प्रशिक्षण डेटा और एल्गोरिथ्म में पूर्व-स्थापित लिंग आधारित पक्षपात (gender bias) हुआ, तो यह तकनीक उलटा असर भी डाल सकती है। उदाहरण के लिए, यदि पूर्व के मामलों में महिलाओं के मुकदमे कमज़ोर माने गए हैं, तो मॉडल उन्हें कमज़ोर मानकर पिछड़ी सिफ़ारिशें भी दे सकता है (European Commission, 2020)। तीसरा, AI में अंतर्निहित पूर्वाग्रह (Bias) एक गंभीर मुद्दा है। ऐतिहासिक अदालती निर्णयों में निहित जातिगत, आर्थिक या लिंग-आधारित भेदभाव अनजाने में भविष्य के मॉडलों में समाहित हो सकते हैं (Zhang, 2020)। इसका मतलब यह है कि यदि ट्रेनिंग डेटा में दलित या पिछड़े समुदायों के पक्ष में कम अनुकूल फैसलों का अनुपात अधिक रहा, तो AI-आधारित सिस्टम उन्हीं फैसलों को “ट्रेंड” मानते हुए भविष्य की सिफ़ारिशें या अनुवाद भी उसी लेंस से कर सकता है (CEPEJ, 2018)। ऐसी स्थिति में AI के कारण एक स्वचालित पूर्वाग्रह (automated discrimination) का ख़तरा बढ़ जाता है।[xv] चौथा, नैतिक व गोपनीयता संबंधी मुद्दे भी चिंताजनक हैं। अदालती रिकॉर्ड में प्रायः संवेदनशील जानकारी होती है—व्यक्तिगत विवरण, पहचान, सामाजिक हैसियत आदि (Press Information Bureau, 2023, August 15)। यदि AI सिस्टम पर्याप्त सुरक्षा मानकों के बिना कार्य करे, तो डेटा लीक, अनधिकृत पहुँच, या साइबर हमलों का जोखिम भी रहता है (NITI Aayog, 2018)। इसके अलावा, गोपनीय डेटा को कैसे संग्रहित और उपयोग किया जाए, इस पर अभी स्पष्ट नियमों व दिशानिर्देशों का अभाव दिखाई देता है (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)।
अतः, समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक होगा कि AI विकास और कार्यान्वयन के हर चरण में विविध सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व हो (Daksh Society, 2020)। चाहे डेटा-संग्रह हो या मॉडल परीक्षण, हाशिये के समुदायों की भागीदारी ठोस रूप से बढ़ाई जाए, ताकि अनजाने में भी सांस्कृतिक या भाषाई भेदभाव न उपजे (CEPEJ, 2018)। इसी तरह, नैतिकता व गोपनीयता को केंद्र में रखकर एक स्पष्ट ढाँचा तैयार करना ज़रूरी है, जिसमें निश्चित हो कि व्यक्तिगत आंकड़े केवल न्यायिक प्रक्रिया के उपयोग के लिए ही हों और किसी भी व्यावसायिक या भेदभावकारी मक़सद से इनका दुरुपयोग न हो (Department of Justice, 2022)। यह सब प्रयास मिलकर ही AI को वास्तविक रूप में समावेशी व न्यायसंगत बना पाएँगे।
कुशलता, पारदर्शिता एवं न्यायिक प्रक्रिया
(Efficiency, Transparency & Judicial Process)
AI-समर्थित समाधानों को अपनाने से उत्तर प्रदेश के मुकदमों के निपटान की रफ़्तार में सुधार की संभावना है। केस मैनेजमेंट टूल्स, जो बुद्धिमान शेड्यूलिंग[xvi] (Intelligent Scheduling) का उपयोग करते हैं, न्यायिक अधिकारियों को बेहतर प्राथमिकता निर्धारण में मदद कर सकते हैं (eCommittee Supreme Court of India, 2023)। उदाहरणस्वरूप, दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रायोगिक तौर पर अपनाए गए “Case Flow Management” मॉडल ने बैकलॉग को कम करने में आंशिक सफलता पाई है, जिसके आधार पर अन्य न्यायालय भी इसी दिशा में आगे बढ़ सकते हैं (Daksh Society, 2020)। AI के स्वत: अनुवादित आदेश/न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता मूल्यांकन में मानवीय हस्तक्षेप अनिवार्य है (Zhang, 2020)। SC के SUVAS सिस्टम में किया गया प्रारंभिक अध्ययन बताता है कि अनुवाद में 85-90% सटीकता होने के बावजूद कुछ कानूनी शब्दावलियों में संदर्भ-त्रुटियाँ रह जाती हैं (Press Information Bureau, 2023, August 15)। अतः अंतिम प्रमाणीकरण तक मानवीय विशेषज्ञता की भूमिका बनी रहेगी।[xvii] व्यापारिक मॉडल व फंडिंग के संदर्भ में सार्वजनिक-निजी साझेदारियों (PPP) का विकल्प सामने आया है, जिसमें तकनीकी कंपनियाँ सरकार को AI समाधान उपलब्ध करा सकती हैं, जबकि न्यायिक पारदर्शिता को बनाए रखने हेतु क़ानूनी और प्रशासनिक नियंत्रण सरकार के पास होगा (Vidhi Centre for Legal Policy, 2021)। इसके साथ-साथ ई-स्टाम्पिंग, ऑनलाइन अदालत शुल्क, तथा डिजिटल साक्ष्यों के प्रमाणीकरण जैसी सेवाओं की दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने को भी प्राथमिकता दी जा रही है (Department of Justice, 2022)। इस प्रकार, AI यदि सुविचारित ढंग से लागू किया जाए, तो न्यायिक दक्षता एवं पारदर्शिता दोनों ही स्तरों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति संभव है।
संदर्भ:
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- Daksh Society. (2020). Justice Frustrated? The Systemic Impact of Delays in Indian Courts. Bengaluru: Daksh.
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